लेख-निबंध >> भारत माता धरती माता भारत माता धरती माताराममनोहर लोहिया
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**"सामाजिक और सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में डॉ. लोहिया की गहरी सोच : ‘भारतमाता-धरतीमाता’ का परिचय"**
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
समाजवादी विचारक और चिंतक डॉ. राममनोहर लोहिया के सामाजिक, सांस्कृतिक (गैर राजनीतिक) लेखों का यह संग्रह है जो लोहिया के सांस्कृतिक मन और सोच को उजागर करता है।
डॉ. लोहिया मुख्य रूप से राजनेता थे और उनके व्यक्तित्व का वही पहलू अधिक प्रमुख होकर देश के सामने आया है, लेकिन देश की राजनीति के अलावा भी वे देश के, समाज के, व्यक्ति के अन्य पहलुओं और समस्याओं पर कितनी गहरी दृष्टि रखते थे और उन पर कितना चिंतन करते थे। यह इन लेखों से स्पष्ट होता है। चाहे उनकी ख्याति एक राजनीतिक के रूप में रही हो, लेकिन वे भारतीय नर-नारी व भारतीय समाज के हर अंग पर दृष्टि रखते थे। उनका राजनीतिक से अधिक एक सांस्कृतिक सामाकि देशभक्त का सम्पूर्ण व्यक्तित्व था।
इन संग्रह के सभी लेख मूल रूप से गैर राजनीतिक हैं, लेकिन कहीं-कहीं राजनीति की झलक जरूर दिख जाती है, वह लोहिया की मजबूरी थी। रामायण, राम, कृष्ण तीर्थों और अन्य विषयों पर उनकी जो दृष्टि थी उनमें वे आधुनिक संदर्भ को जोड़ते थे, इसलिए कहीं-कहीं राजनीतिक की झलक मिलती है।
इन लेखों को पढ़ते समय दो बातों को सदा ध्यान में रखना होगा— एक, यह कि लोहिया ने लेख रूप में बहुत कम लिखा है। अधिकांश उनके भाषण हैं जिन्हें उनके हम जैसे मित्रों ने लेख का रूप दिया है। फिर भी, बात और भाषा उन्हीं की है। और दो, यह कि ये लेख या भाषण लोहिया के जीवन काल में सन् 1950 से 1965 तक के काल खण्ड के ही हैं, अतः बीच-बीच में आबादी आदि के जो आँकड़े दिए गए हैं, वे उन्हीं दिनों के हैं। मैंने उन्हें बदलकर आधुनिक व नवीनतम बनाने की धृष्टता नहीं की है, करता तो स्वाभाविकता नष्ट होती और शायद संदर्भ भी गड़बड़ाते। अतः लोहिया के बोले या लिखे को मैं जहां जस-का-तस ही प्रस्तुत कर रहा हूँ।
इन लेखों से डॉक्टर राममनोहर लोहिया कि जिस सम्पूर्ण व्यक्तित्व से लोग परिचित होंगे, उससे उन्हें तो खुशी होगी, मुझे भी बहुत खुशी मिलेगी और संतोष होगा।
लोहिया को गये पन्द्रह साल हो रहे हैं। इतनी देर से ही यह लेख-संग्रह दे कर भी मैं संतोष का अनुभव करता हूँ। यह काम मुझे बहुत पहले करना चाहिए था, लेकिन मेरी असमर्थता और अकर्मण्यता की अपनी सीमा है।
लोहिया की याद के साथ यह पुस्तक लोहिया-प्रेमियों को भेंट करते, मैं गौरव का अनुभव जरूर कर रहा हूँ।
डॉ. लोहिया मुख्य रूप से राजनेता थे और उनके व्यक्तित्व का वही पहलू अधिक प्रमुख होकर देश के सामने आया है, लेकिन देश की राजनीति के अलावा भी वे देश के, समाज के, व्यक्ति के अन्य पहलुओं और समस्याओं पर कितनी गहरी दृष्टि रखते थे और उन पर कितना चिंतन करते थे। यह इन लेखों से स्पष्ट होता है। चाहे उनकी ख्याति एक राजनीतिक के रूप में रही हो, लेकिन वे भारतीय नर-नारी व भारतीय समाज के हर अंग पर दृष्टि रखते थे। उनका राजनीतिक से अधिक एक सांस्कृतिक सामाकि देशभक्त का सम्पूर्ण व्यक्तित्व था।
इन संग्रह के सभी लेख मूल रूप से गैर राजनीतिक हैं, लेकिन कहीं-कहीं राजनीति की झलक जरूर दिख जाती है, वह लोहिया की मजबूरी थी। रामायण, राम, कृष्ण तीर्थों और अन्य विषयों पर उनकी जो दृष्टि थी उनमें वे आधुनिक संदर्भ को जोड़ते थे, इसलिए कहीं-कहीं राजनीतिक की झलक मिलती है।
इन लेखों को पढ़ते समय दो बातों को सदा ध्यान में रखना होगा— एक, यह कि लोहिया ने लेख रूप में बहुत कम लिखा है। अधिकांश उनके भाषण हैं जिन्हें उनके हम जैसे मित्रों ने लेख का रूप दिया है। फिर भी, बात और भाषा उन्हीं की है। और दो, यह कि ये लेख या भाषण लोहिया के जीवन काल में सन् 1950 से 1965 तक के काल खण्ड के ही हैं, अतः बीच-बीच में आबादी आदि के जो आँकड़े दिए गए हैं, वे उन्हीं दिनों के हैं। मैंने उन्हें बदलकर आधुनिक व नवीनतम बनाने की धृष्टता नहीं की है, करता तो स्वाभाविकता नष्ट होती और शायद संदर्भ भी गड़बड़ाते। अतः लोहिया के बोले या लिखे को मैं जहां जस-का-तस ही प्रस्तुत कर रहा हूँ।
इन लेखों से डॉक्टर राममनोहर लोहिया कि जिस सम्पूर्ण व्यक्तित्व से लोग परिचित होंगे, उससे उन्हें तो खुशी होगी, मुझे भी बहुत खुशी मिलेगी और संतोष होगा।
लोहिया को गये पन्द्रह साल हो रहे हैं। इतनी देर से ही यह लेख-संग्रह दे कर भी मैं संतोष का अनुभव करता हूँ। यह काम मुझे बहुत पहले करना चाहिए था, लेकिन मेरी असमर्थता और अकर्मण्यता की अपनी सीमा है।
लोहिया की याद के साथ यह पुस्तक लोहिया-प्रेमियों को भेंट करते, मैं गौरव का अनुभव जरूर कर रहा हूँ।
ओंकार शरद
रामायण
धर्म और राजनीति का रिश्ता बिगड़ गया है। धर्म दीर्घकालीन राजनीति है और राजनीति अल्पकालीन धर्म। धर्म श्रेयस् की उपलब्धि का प्रयत्न करता है, राजनीति बुराई से लड़ती है। हम आज एक दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थिति में हैं, जिसमें कि बुराई से विरोध की लड़ाई में धर्म का कोई वास्ता नहीं रह गया है और वह निर्जीव हो गया है, जबकि राजनीति अत्यधिक कलही और बेकार हो गयी है। तुलसी की रामायण में निश्चय कि सोना, हीरा, मोती बहुत है, लेकिन उसमें कूड़ा और उच्छिष्ट भी काफी है। इन दोनों को धर्म से इतना पवित्र बना दिया गया है कि भारतीय जन की विवेक-दृष्टि लुप्त हो गयी है।
दृष्टि गहरी और व्यापक हुए बिना न आनन्द मिलता है, न समझ। तुलसी की रामायण में आनन्द के साथ-साथ धर्म भी जुड़ा हुआ है, धर्म शाश्वत मानी में और वक़्ती भी। तुलसी की कविता से निकली है अनगिनत रोज की उक्तियाँ और कहावतें, जो आदमी को टिकाती हैं, और सीधे रखती हैं। साथ ही ऐसी भी कविता है जो एक बहुत की क्रूर अथवा क्षण-भंगुर धर्म के साथ जुड़ी हुई है, जैसे शुद्र या नारी की निन्दा और गऊ, विप्र की पूजा। मोती को चुनने के लिए कूड़ा निगलना जरूरी नहीं है, न ही कूड़ा साफ करते वक्त मोती को फेंकना।
तुलसी महान हैं यह कहना अनावश्यक है। जरूरत है बताने की उन चीजों को जिनमें उनकी महत्ता फूटती है। तुलसी के बारे में मैं अपनी निजी राय बता दूँ, जिसको मानना ज़रूरी नहीं है, तुलसी एक रक्षक कवि थे। जब चारों तरफ से अझेल हमलें हों तो बचाना, थामना, टेक देना, शायद ही तुलसी से बढ़कर कोई कर सकता है। जब साधारण शक्ति आ चुकी हो, फैलाव, खोज, प्रयोग, नूतनता और महाबल अथवा महा-आनन्द के लिए दूसरी या पूरक कविता ढूँढ़नी होगी।
आनन्द, प्रेम और शान्ति का आह्वान तो रामायण में है ही, पर हिन्दुस्तान की एकता जैसा लक्ष्य भी स्पष्ट है। सभी जानते हैं कि राम हिन्दुस्तान के उत्तर दक्षिण की एकता के देवता थे, कि पूर्व-पश्चिम एकता के देवता थे कृष्ण और, कि आधुनिक भारतीय भाषाओं का मूल स्रोत रामकथा है। कम्बन की तमिल रामायण, एकनाथ को मराठी रामायण, कीर्तिवास की बंगला रामायण और ऐसी ही दूसरी रामायणों ने अपनी-अपनी भाषा को जन्म और संस्कार दिया।
यहाँ मैं बतला दूँ कि खोतानी (तुर्की) रामायण तो राम और लक्ष्मण दोनों की शादी सीता से करा देती है, और थाई और कम्बोज और हिन्देशिया की रामायणों में वही दिखाया गया है जो कि कुछ प्राचीन भारतीय रामायणों में है, कि सीता की ननद उसके साथ ऐसी मसखरी करती है कि जिसमें उसके पास रावण का चित्र रख दिया कि सीता व्यग्र हो उठे। इन सबसे यह पता चलता है कि मूल राम-कथा आवश्यक वस्तु है न कि उसकी बारीकियाँ।
तुलसी रामायण की धार्मिक कविता ऐसी है कि जैसी, शायद दुनिया भर में और कोई कवित्वमय नहीं है, लेकिन बिना किसी संदेह के यह कहा जा सकता है कि वह विवेक को दबा देने की ओर प्रवृत्त करती है। जहाँ धर्म निरपेक्ष कवि शेक्सपियर और ग्वेथे या कालिदास भी, पाठक में, उसकी समीक्षा-बुद्धि की अवरुद्ध किये बिना कविता और विस्तीर्ण वातावरण निर्मित करते हैं, वहाँ रामायण जिस किसी विषय पर जो कुछ कहती है, उसे पवित्र बना देती है। कम से कम अधिकांश पाठकों और श्रेताओं पर यही असर पड़ता है। रोजमर्राह के रीति-रिवाज एक ऐसे शाश्वत मूल्य प्राप्त कर लेते हैं जैसे कि उन्हें कभी नहीं करना चाहिए। औरतों या पिछड़े वर्गों या जातियों के खतरनाक स्वरूप सम्बन्धी विचार सुप्रतिष्ठित किये गये हैं। इन उत्कृष्ट पंक्तियों को हमेशा याद रखना चाहिए—
सीया राममय सब जग जानी। करहुँ प्रणाम जोरि जुग पानी।।
या
कत विधि सृजों नारी जग माही। पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं।।
और, नारी को कलंकित करने वाली पंक्तियों को हँस कर टाल देना चाहिए कि ये पंक्तियाँ किसी शोक–संतप्त अथवा नीच पात्र के मुँह में हैं या ऐसे कवियों की हैं जो अपरिवर्तनशील युग में थे।
हम तुलसी को याद करें। नारी स्वतन्त्रता और समानता की जितनी जानदार कविता मैंने तुलसी की पढ़ी और सुनी उतनी और कहीं नहीं, कम से कम इसे ज्यादा जानदार कहीं नहीं। अफसोस यह है कि नारी-हीनता वाली कविता तो हिन्दू नर के मुँह पर चढ़ी रहती है, लेकिन नारी-सम्मान वाली कविता को वह भुलाये रहता है। ‘पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं’ का सम्बन्ध नारी से है। जब पार्वती का विवाह हो गया तब उनकी माँ नैना बिदाई के मौके पर दुःखी होकर और समझाने-बुझाने पर संताप की वह बेजोड़ बात करती हैं, जो सारे संसार की नाही-हृदय की चीख है—‘तक विधि सृजों नारी जग माहीं, पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं’। हिन्दू नर इतना नीच हो गया है कि पहले तो इस चौपाई के पूर्वार्द्ध को भुला देने की कोशिश की और फिर, कहीं-कहीं, उसने इसका नया पूर्वार्द्ध ही गढ़ डाला, ‘‘कर-विचार देखहुँ मनमाहीं।’
गजब है तुलसी ! क्या ममता, क्या नारी हृदय की चीख, क्या नर-नारी आदर्श जीवन की सूचना। आखिर उसने संसार को किस रूप में जाना है, ‘सियाराम-मय सब जग जानी’।
नर और नारी का स्नेहमय सम्बन्ध बराबरी की नींव पर हो सकता है। ऐसा सम्बन्ध कोई समाज अभी तक नहीं जान पाया। सीता और राम में भी पूरी बराबरी का स्नेह नहीं था। समाज के अन्दर व्याप्त गैरबराबरी का कण उसमें भी पड़ गया। फिर भी, जितना ज्यादा सीता, द्रौपदी और पार्वती इत्यादि को ऊँचे और स्वतंत्र आसन पर बैठाया है, उससे ज्यादा ऊँचा नारी का आसन दुनिया में कहीं और कभी नही हुआ। यदि दृष्टि ठीक है तो राम-कथा और तुलसी-रामायण की कविता सुनने या पढ़ने से नर-नारी के सम-स्नेह की ज्योति मिल सकती है।
ऐसी दृष्टि, लगता है कि हिन्दुस्तान को बहुत ठोकर खाने के बाद ही मिलेगी। दहेज की रकम बढ़ती चली जा रही है और जब माता-पिता उसे न दे पायेंगे और जब वह सब बढ़ेगा जिसे हिन्दुस्तान में अनर्थ कहा जाता है, तब लोग समझेंगे कि नारी को भी इसी तरह खोल दो जैसे नर को।
तुलसी या और किसी भी रामायण में सामयिक और क्षण-भंगुर चीजें बहुत हैं। मिसाल के लिए बाल राम की पैजनियाँ। ये उस युग की प्रतीक हैं जहाँ मनुष्य को किसी न किसी खिलौने के रूप में देखा जाता है। इन पैंजनियों को खतम करना ही है, चाहे वह नर के पैर में हो, चाहे नारी के पैर मे, केवल पैर मे नहीं हैं, और जगह भी। कन-छेदन, नर और नारी दोनों के, और नक-छेदन नारी के, कितने वीभत्स प्रकरण हैं। मणि, मुक्ता और कनक के लिए सभी रामायणों में एक अद्भुत लालसा मिलेगी। मुझे लगता है कि ये सब वैभव और ऐश्वर्य और सुख के प्रतीक हैं। शायद, मनुष्य को उनसे कभी छुटकारा नहीं मिलेगा। लेकिन वह समय तो अब खतम-सा हो रहा है, जब ये शक्ति और शासन के प्रतीक थे। ऐसे सब वर्णनों में तुलसी या और किसी कवि का दोष नहीं है। दोष अगर है तो समय का। अब समय फिर रहा है। इसलिए रामायण पढ़ते या सुनते समय पैजनियाँ, नकछेदन, मणि-मुक्ता वगैरह की बात को आदर्श मन से छोड़ देना चाहिए, और उन्हें केवल बीते हुए जमाने के बीते हुए प्रतीक के समान समझना चाहिए।
दृष्टि गहरी और व्यापक हुए बिना न आनन्द मिलता है, न समझ। तुलसी की रामायण में आनन्द के साथ-साथ धर्म भी जुड़ा हुआ है, धर्म शाश्वत मानी में और वक़्ती भी। तुलसी की कविता से निकली है अनगिनत रोज की उक्तियाँ और कहावतें, जो आदमी को टिकाती हैं, और सीधे रखती हैं। साथ ही ऐसी भी कविता है जो एक बहुत की क्रूर अथवा क्षण-भंगुर धर्म के साथ जुड़ी हुई है, जैसे शुद्र या नारी की निन्दा और गऊ, विप्र की पूजा। मोती को चुनने के लिए कूड़ा निगलना जरूरी नहीं है, न ही कूड़ा साफ करते वक्त मोती को फेंकना।
तुलसी महान हैं यह कहना अनावश्यक है। जरूरत है बताने की उन चीजों को जिनमें उनकी महत्ता फूटती है। तुलसी के बारे में मैं अपनी निजी राय बता दूँ, जिसको मानना ज़रूरी नहीं है, तुलसी एक रक्षक कवि थे। जब चारों तरफ से अझेल हमलें हों तो बचाना, थामना, टेक देना, शायद ही तुलसी से बढ़कर कोई कर सकता है। जब साधारण शक्ति आ चुकी हो, फैलाव, खोज, प्रयोग, नूतनता और महाबल अथवा महा-आनन्द के लिए दूसरी या पूरक कविता ढूँढ़नी होगी।
आनन्द, प्रेम और शान्ति का आह्वान तो रामायण में है ही, पर हिन्दुस्तान की एकता जैसा लक्ष्य भी स्पष्ट है। सभी जानते हैं कि राम हिन्दुस्तान के उत्तर दक्षिण की एकता के देवता थे, कि पूर्व-पश्चिम एकता के देवता थे कृष्ण और, कि आधुनिक भारतीय भाषाओं का मूल स्रोत रामकथा है। कम्बन की तमिल रामायण, एकनाथ को मराठी रामायण, कीर्तिवास की बंगला रामायण और ऐसी ही दूसरी रामायणों ने अपनी-अपनी भाषा को जन्म और संस्कार दिया।
यहाँ मैं बतला दूँ कि खोतानी (तुर्की) रामायण तो राम और लक्ष्मण दोनों की शादी सीता से करा देती है, और थाई और कम्बोज और हिन्देशिया की रामायणों में वही दिखाया गया है जो कि कुछ प्राचीन भारतीय रामायणों में है, कि सीता की ननद उसके साथ ऐसी मसखरी करती है कि जिसमें उसके पास रावण का चित्र रख दिया कि सीता व्यग्र हो उठे। इन सबसे यह पता चलता है कि मूल राम-कथा आवश्यक वस्तु है न कि उसकी बारीकियाँ।
तुलसी रामायण की धार्मिक कविता ऐसी है कि जैसी, शायद दुनिया भर में और कोई कवित्वमय नहीं है, लेकिन बिना किसी संदेह के यह कहा जा सकता है कि वह विवेक को दबा देने की ओर प्रवृत्त करती है। जहाँ धर्म निरपेक्ष कवि शेक्सपियर और ग्वेथे या कालिदास भी, पाठक में, उसकी समीक्षा-बुद्धि की अवरुद्ध किये बिना कविता और विस्तीर्ण वातावरण निर्मित करते हैं, वहाँ रामायण जिस किसी विषय पर जो कुछ कहती है, उसे पवित्र बना देती है। कम से कम अधिकांश पाठकों और श्रेताओं पर यही असर पड़ता है। रोजमर्राह के रीति-रिवाज एक ऐसे शाश्वत मूल्य प्राप्त कर लेते हैं जैसे कि उन्हें कभी नहीं करना चाहिए। औरतों या पिछड़े वर्गों या जातियों के खतरनाक स्वरूप सम्बन्धी विचार सुप्रतिष्ठित किये गये हैं। इन उत्कृष्ट पंक्तियों को हमेशा याद रखना चाहिए—
सीया राममय सब जग जानी। करहुँ प्रणाम जोरि जुग पानी।।
या
कत विधि सृजों नारी जग माही। पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं।।
और, नारी को कलंकित करने वाली पंक्तियों को हँस कर टाल देना चाहिए कि ये पंक्तियाँ किसी शोक–संतप्त अथवा नीच पात्र के मुँह में हैं या ऐसे कवियों की हैं जो अपरिवर्तनशील युग में थे।
हम तुलसी को याद करें। नारी स्वतन्त्रता और समानता की जितनी जानदार कविता मैंने तुलसी की पढ़ी और सुनी उतनी और कहीं नहीं, कम से कम इसे ज्यादा जानदार कहीं नहीं। अफसोस यह है कि नारी-हीनता वाली कविता तो हिन्दू नर के मुँह पर चढ़ी रहती है, लेकिन नारी-सम्मान वाली कविता को वह भुलाये रहता है। ‘पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं’ का सम्बन्ध नारी से है। जब पार्वती का विवाह हो गया तब उनकी माँ नैना बिदाई के मौके पर दुःखी होकर और समझाने-बुझाने पर संताप की वह बेजोड़ बात करती हैं, जो सारे संसार की नाही-हृदय की चीख है—‘तक विधि सृजों नारी जग माहीं, पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं’। हिन्दू नर इतना नीच हो गया है कि पहले तो इस चौपाई के पूर्वार्द्ध को भुला देने की कोशिश की और फिर, कहीं-कहीं, उसने इसका नया पूर्वार्द्ध ही गढ़ डाला, ‘‘कर-विचार देखहुँ मनमाहीं।’
गजब है तुलसी ! क्या ममता, क्या नारी हृदय की चीख, क्या नर-नारी आदर्श जीवन की सूचना। आखिर उसने संसार को किस रूप में जाना है, ‘सियाराम-मय सब जग जानी’।
नर और नारी का स्नेहमय सम्बन्ध बराबरी की नींव पर हो सकता है। ऐसा सम्बन्ध कोई समाज अभी तक नहीं जान पाया। सीता और राम में भी पूरी बराबरी का स्नेह नहीं था। समाज के अन्दर व्याप्त गैरबराबरी का कण उसमें भी पड़ गया। फिर भी, जितना ज्यादा सीता, द्रौपदी और पार्वती इत्यादि को ऊँचे और स्वतंत्र आसन पर बैठाया है, उससे ज्यादा ऊँचा नारी का आसन दुनिया में कहीं और कभी नही हुआ। यदि दृष्टि ठीक है तो राम-कथा और तुलसी-रामायण की कविता सुनने या पढ़ने से नर-नारी के सम-स्नेह की ज्योति मिल सकती है।
ऐसी दृष्टि, लगता है कि हिन्दुस्तान को बहुत ठोकर खाने के बाद ही मिलेगी। दहेज की रकम बढ़ती चली जा रही है और जब माता-पिता उसे न दे पायेंगे और जब वह सब बढ़ेगा जिसे हिन्दुस्तान में अनर्थ कहा जाता है, तब लोग समझेंगे कि नारी को भी इसी तरह खोल दो जैसे नर को।
तुलसी या और किसी भी रामायण में सामयिक और क्षण-भंगुर चीजें बहुत हैं। मिसाल के लिए बाल राम की पैजनियाँ। ये उस युग की प्रतीक हैं जहाँ मनुष्य को किसी न किसी खिलौने के रूप में देखा जाता है। इन पैंजनियों को खतम करना ही है, चाहे वह नर के पैर में हो, चाहे नारी के पैर मे, केवल पैर मे नहीं हैं, और जगह भी। कन-छेदन, नर और नारी दोनों के, और नक-छेदन नारी के, कितने वीभत्स प्रकरण हैं। मणि, मुक्ता और कनक के लिए सभी रामायणों में एक अद्भुत लालसा मिलेगी। मुझे लगता है कि ये सब वैभव और ऐश्वर्य और सुख के प्रतीक हैं। शायद, मनुष्य को उनसे कभी छुटकारा नहीं मिलेगा। लेकिन वह समय तो अब खतम-सा हो रहा है, जब ये शक्ति और शासन के प्रतीक थे। ऐसे सब वर्णनों में तुलसी या और किसी कवि का दोष नहीं है। दोष अगर है तो समय का। अब समय फिर रहा है। इसलिए रामायण पढ़ते या सुनते समय पैजनियाँ, नकछेदन, मणि-मुक्ता वगैरह की बात को आदर्श मन से छोड़ देना चाहिए, और उन्हें केवल बीते हुए जमाने के बीते हुए प्रतीक के समान समझना चाहिए।
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